नींद रूठी पङी हैं।
दिन बीत जाता मजदूरों की तरह जैसे तैसे लेकिन रातों में जाने क्यों नींद नही आती। लगते हैं ख्यालों में डूबने तैरने खरीदने बेचने प्रोपर्टी बनाने देर रात फ़ोन चला कर एक तरफ रख देते हैं फिर दूसरी तरफ अँधेरे में झाँक कर सोचना ज़िन्दगी के बारे में, अपने बारे में, रिश्तों के बारे में,अपना नया घर लेना है उसके बारे में या गुजरे वक़्त और गुजर रहे वक़्त और आने वाले वक्त के बारे में।
कितना अजीब है सब। चलता ही जा रहा है अनवरत बिना किसी विराम के। किसी बड़े दुःख के आने के बाद उससे कम दुःख का आना भी तसल्ली दे जाता है कि चलो कुछ बड़ा नहीं हुआ।
खुशी आती है पर बारिश के हल्के झल्ले सी होकर कब गुजर जाती है, पता भी नहीं चलता। खुशी की वो मूसलाधार बारिश जिसका सबको हमेशा इंतज़ार है, जिसके लिए हमारी लगातार मेहनत है। वो होगी भी या नहीं। इस अँधेरे में यही बैठा सोच रहा हूँ और ताक रहा हूँ कि यही कहीं से फूट पड़े। वो किसान जो बारिश की आस में आसमान ताकता है ना, ठीक वैसे ही मैं अँधेरा ताका करता हूँ।
शायद अगली सुबह कुछ नया ले आयेगी। कुछ बेहतर पर वो चौराहे पर बैठी अम्मा रोज वहीं मिलती हैं। रास्ते में काम पर जाते वक़्त वो बच्ची अपने छोटे भाई को गोद मे टाँगे रोज टहलती है।
खुद को पढ़ी लिखी बताने वाली महिला बिना वजह चौराहे पर भीख मांगती है। कुछ भी तो नहीं बदलता।
जिस सुबह इन दोनों में से एक भी मुझे कुछ अच्छा करता मिला या पता चला तो खुशियों को लेकर मेरी आस थोड़ी और बढ़ जायेगी। फिर मैं एक अच्छी बारिश का नहीं, मानसून का इंतज़ार करूँगा।
काम पर जाते वक़्त रास्ते में मन्दिर के बाहर वाले चचा बढ़िया बात करते हैं। उन्हें सब पता है कि वहाँ क्या चल रहा है। पर सबको नहीं बताते क्योंकि उनकी खुशियाँ भी उस ठेले के एवज में गिरवीं पड़ी हैं। एक चाचा हैं चाय की दुकान चलाते हैं घर मे बेटा है तीन बेटियां हैं अपनी तकलीफें हमको बताते हैं।
वो जो लड़का है जिसका डायलिसिस चल रहा है उसका ट्रांसप्लांट कराना है और तीनों बेटियों की शादी करवानी हैं।
उसके आंसुओं से भरी आंखों में खुशी देखनी है ।
जिस रोज मानसून आया तो सबसे पहले उसका एक दिन उनके नाम कर देना है।
क्या पता इतना सब करने के बाद कुछ खुशियां हमे मिल जाएं ।
अब बस इंतज़ार है कब मानसून आएगा इसी उम्मीद में ख्वाब सजाये बैठे हैं और नींद रूठी पड़ी है ।।
#संदीप_यदुवंशी
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