ख़ाब के एक शाम
नदानगी झलकती हैं मेरे आदतों से,
मैं खुद हैरान हूँ मुझे इश्क़ कैसें हुया....
ख़ाब में एक शाम....❤
एक ख़ाब आया है। ख़ाब में शाम है, मैं हूँ, तुम हो और बैक ग्राउंड में अपने-अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त ढेर सारे लोग! ये ढेर सारे लोग इतने सारे हैं कि इनकी गिनती करने में मेरे ख़ाब वाली तमाम शामें गुज़र जाएं। मैं बाकी शामों के गुजरने को लेकर ज़रा भी फिक्रमंद नहीं हूँ पर मेरे ख़ाब वाली इस शाम का एक लम्हा भी मैं किसी और पर ज़ाया होते नहीं देख सकता। मेरे इस शाम को तो मैं सिर्फ तुम्हारी उठती-गिरती पलकों को निहारने में खर्चना चाहता हूँ, तुम्हारी ज़ुल्फ़ में फंसी बूंदों को चुनने में खर्चना चाहता हूँ, तुम्हारे माथे की एक-एक सिकन मिटाने में खर्चना चाहता हूँ, तुम्हारे लबों पर बनती धारियों को गिनने में खर्चना चाहता हूँ।
इसलिए मैंने नहीं देखा कि उस शाम इतने सारे लोग बैकग्राउंड में क्या कर रहे थे? मैंने नहीं सोचा कि क्या ये लोग भी अपने ख़ाबों में हमें देख रहे होंगे? अगर देख भी रहे होंगे तो क्या हम इनके ख़ाबों के मुख्य किरदार होंगे? शायद नहीं! सभी अपने ख़ाबों के ही मुख्य किरदार हो सकते हैं शायद! मुझे इनके ख़ाबों में बैकग्राउंड में ही रहना है। पर क्या मैं तुम्हारे ऐसे ही किसी शाम के ख़ाबों का मुख्य किरदार बन पाऊंगा कभी? क्या होगा ऐसा कभी कि मेरे ख़ाबों वाली शाम मेरे सामने हो और हम एक साथ गंगा के किसी घाट पर बैठे तमाम दुनिया को बैकग्राउंड बना दें?
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