गाँवो का बदलता विकाश

 इस बार मैं गाँव गया तों वहाँ पर बहुत सी चीजों का बदलाव देखकर बहुत गुस्सा आया..... संस्कार और अपने से बङो का सम्मान करना बच्चें भुल गये हैं 

और हमलोगों जब इस उम्र में थे तों हमलोगों का रहन सहन कैसा होता था....


बात बहुत पुरानी नहीं है. गांवों तक सड़कें नहीं पहुंची थी.  हाट-बाजार की रंगीनियां कम थीं. बत्ती के नाम पर बस लालटेन-डिबिया का सहारा हुआ करता था. उस गांव में शाम होते ही बैठ जाते थे नौनिहाल लालटेन के इर्दगिर्द. पैर-हाथ धोकर पढ़ने बैठ जाना अच्छे संस्कारों में गिना जाता था. दादाजी भूंजा फांकते बच्चों को पढ़ते देख निहाल हुए जाते थे. बीच-बीच में ऊँघने वाले को डांट भी पड़ जाती.


कोई हिंदी किताब पलटाए एक था राजा-एक थी रानी कविता पढ़े जा रहा है तो कोई बीसों बार ई फ़ॉर एलीफैंट, एलीफैंट माने हाथी रट रहा है. बीच-बीच में बच्चे ओसारे पर खाना बना रही माई पर भी चुपके से नज़र डालते ही कि बाबूजी झिड़क देते - एक घण्टा लगेगा अभी बनने में, चुपचाप बैठ के पढ़ो सब. 9 बजे से पहले कोई हिला तो खाना नहीं मिलेगा. डाँट पड़ते ही 'एक था राजा-एक थी रानी' वाला 'दोनों मर गए-ख़त्म कहानी' वाली लाइन पर आ जाता और ई फ़ॉर एलीफैंट वाला एफ फ़ॉर फिश, फिश माने मछली रटने लगता.


तब संसाधन कम थे. पर उत्साह था. बच्चों में पढ़ने का और अभिभावकों में उन्हें पढ़ाने का. भगवान घर में भले दीया तेल के अभाव में बुझ-बुझ के जल रहा हो, खाना बनाने के लिए ढिबरी हाथों में रखना पड़ रहा हो पर बच्चों के लालटेन का केरोसिन कम नहीं होता. उस लालटेन की रोशनी ने कितने घरों को उजाले से भर दिया. उन अभावों ने भी बड़ा प्रभाव छोड़ा.


अब गांवों में घर-घर बिजली आ गयी है. बलिया वाली बस सीधे घर के पास में छोड़ने लगी है. बाजार-हाट की चमक अचानक कितनी बढ़ गयी है. घर-घर टेलीविजन है, दसियों बल्ब लगे हैं. अभिभावकों की कमाई बढ़ी है. गांवों का विकास दिख रहा है. पर शाम ढले हाथ-पैर धोकर पढ़ने बैठने की परंपरा लुप्त हो गयी है. राजा-रानी की कहानियों वाली किताबें रद्दी के भाव बिक रही, लोगबाग उसपर समोसा-लिट्टी खा रहे. मोबाइल की चमक में शाम, शाम से रात, रात से आधी रात कैसे बीत जाती है, पता नहीं चलता.


ई फ़ॉर एलीफैंट की जगह ई से इंटरनेट ने ले लिया है. हर हाथ में स्मार्ट फोन है. हर आंख अपने में व्यस्त है. न बच्चे पढ़ने बैठ रहे, ना अभिभावक उन्हें बैठने को कह रहे. अभिभावक बच्चों को समय ना दे पाने की भरपाई उन्हें मोबाइल, इंटरनेट आदि सुविधा देकर करने की कोशिश कर रहे. यही आज का विकास है. विकास की कीमत चुकानी होती है. जब लालटेन की रोशनी थी तो बस किताबों के लिखे स्पष्ट दिखते थे, इसके अलावे कमरे का बाकी हिस्सा अंधियारे-सा दिखता. अब पूरा घर रोशनी से जगमगा रहा है तो किताबों पर लिखे शब्द ठीक से नहीं दिखते.

स्नेहिल शुभ संध्या नमस्कार हरें कृष्ण 🙏

#हर_हर_महादेव🙏⛳ 

#जय_भृगु_बाबा 🙏⛳

#संदीप_यदुवंशी

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